चालुक्य वंश
एक भारतीय शाही राजवंश था जिसने 6वीं और 12वीं शताब्दी के बीच दक्षिणी और मध्य भारत के बड़े हिस्से पर शासन किया। सौराष्ट्र में चालुक्यों के शासन को आभीरों द्वारा समाप्त कर दिया गया था।दसवीं शताब्दी की तीसरी तिमाही। इस अवधि के दौरान, उन्होंने तीन संबंधित अभी तक व्यक्तिगत राजवंशों के रूप में शासन किया। सबसे पहला राजवंश, जिसे "बादामी चालुक्य" के रूप में जाना जाता है, ने 6 वीं शताब्दी के मध्य से वातापी (आधुनिक बादामी) पर शासन किया। बादामी चालुक्यों ने बनवासी के कदंब साम्राज्य के पतन पर अपनी स्वतंत्रता का दावा करना शुरू कर दिया और पुलकेसी द्वितीय के शासनकाल के दौरान तेजी से प्रमुखता से उभरे। पुलकेशी द्वितीय की मृत्यु के बाद, पूर्वी चालुक्य पूर्वी दक्कन में एक स्वतंत्र राज्य बन गया। उन्होंने वेंगी से लगभग 11वीं शताब्दी तक शासन किया। पश्चिमी दक्कन में, 8 वीं शताब्दी के मध्य में राष्ट्रकूटों के उदय ने बादामी के चालुक्यों को उनके वंशजों, पश्चिमी चालुक्यों द्वारा 10 वीं शताब्दी के अंत में पुनर्जीवित करने से पहले ग्रहण किया। इन पश्चिमी चालुक्यों ने 12वीं शताब्दी के अंत तक कल्याणी (आधुनिक बसवकल्याण) से शासन किया।
परिचय
चालुक्य राजवंश कई शाखाओं में विभक्त था। यह मान्यता है कि वे चालुक्य वंश के ही समरूप थे, क्योंकि वे भी इस रूढ़ि में विश्वास करते थे कि परिवार का अधिष्ठाता ब्रह्मा की हथेली से उत्पन्न हुआ था। यह भी किबदंती है कि चालुक्यों का मूल वासस्थान अयोध्या था, जहाँ से चलकर उस परिवार का राजकुमार विजयादित्य दक्षिण पहुँचा और वहाँ अपना राज्य स्थापित करने के प्रयत्न में पल्लवों से युद्ध करता हुआ मारा गया। उसके पुत्र विष्णुवर्धन् ने कदंबो और गंगों को परास्त किया और वहाँ अपने राज्य की स्थापना की। वंश की राजधानी बीजापुर जिले में बसाई थी। प्रो हार्नले वह भगवान जी लाल इंद्र ने वातापी के चालुक्यों को हूणों का उत्तराधिकारी बताया है
पुलकेशिन प्रथम का एक उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन् प्रथम था, जो छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। उसने कदंबों, गंगां और मौर्यों को पराजित करके अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित प्रदेश में कुछ और भाग मिला लिए। पुलकेशिन् द्वितीय, कुब्ज विष्णुवर्धन और जयसिंह उसके तीन पुत्र थे और छठी शताब्दी के अंत में उसका उत्तराधिकार उसके छोटे भाई मंगलेश को प्राप्त हुआ। मंगलेश ने 602 ई. के पूर्व मलवा के कलचुरीय बुद्धराज को परास्त किया और दक्षिण में कलचुरि राज्य के विस्तार को रोका। उसने अपने पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने का प्रयत्न किया, किंतु उसके भतीजे पुलकेशिन् द्वितीय ने इसका विरोध किया। फलस्वरूप गृहयुद्ध में मंगलेश के जीवन का अंत हुआ। पुलकेशिन् द्वितीय ने जो 609 में सिंहासन पर बैठा, एक बड़ा युद्ध अभियान जारी किया और मैसूर के कंदब, कोंकण के मौर्य, कन्नौज के हर्षवर्धन और कांची के पल्लवों को परास्त किया तथा लाट, मालवा और कलिंग पर विजय प्राप्त की। उसके छोटे भाई विष्णुवर्धन् ने अपने लिये आंध्र प्रदेश जीता तो बादामी राज्य में मिला लिया गया। उसने सन् 615-616 में इस राजकुमार को आंध्र का मुख्य शासक नियुक्त किया और तब उसका शासन राजकुमार और उसके उत्तराधिकारियों के हाथ में रहा, जो पूर्वी चालुक्यों के रूप में प्रसिद्ध थे।
संभवत: पुलकेशिन् द्वितीय ने पल्लव नरसिंह वर्मन् से सन् 642 में वुद्ध करते हुए प्राण दिए। उसके राज्यकाल में सन् 641 में एक चीनी यात्री युवानच्वां ने उसके राज्य का भ्रमण किया, जिसके संस्मरणों से उस काल में दक्षिण की आंतरिक स्थिति की झलक प्राप्त हो सकती है। पुलकेशिन् द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् 13 वर्ष तक दक्षिण का प्रांत पल्लवों के अधिकार में रहा। 655 ई. में उसके बेटे विक्रमादित्य प्रथम ने पल्लवों के अधिकार से अपना राज्य पुन: प्राप्त कर लिया। उसने अपनी सेनाएँ लेकर पल्लवों पर आक्रमण कर दिया और प्रदेश के एक भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया, यद्यपि वह प्रभुत्व बहुत अल्प समय तक ही रहा। उसके प्रपौत्र विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लवों से पुन: बैर ठान लिया और उसकी राजधानी कांची को लूट लिया। विक्रमादित्य द्वितीय के राज्यकालांतर्गत (733-745 ई.) चालुक्य राज्य के उत्तरी भाग पर सिंध के अरबों ने आधिपत्य जमा लिया, किंतु अवनिजनाश्रय पुलकेशी नाम के उसके सामंत ने, जो चालुक्य वंश की पार्श्ववर्ती शाखा का सदस्य था तथा जिसक मुख्य स्थान नौसारी में था, आधिपत्यकारियों को खदेड़कर बाहर कर दिया। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन् द्वितीय आठवीं शताब्दी के मध्य राष्ट्रकूट दानीदुर्ग द्वारा पदच्युत किया गया।
जैसा इससे पूर्व कहा जा चुका है, कुब्ज विष्णुवर्धन्, पुलकेशिन् द्वितीय का छोटा भाई, जो चालुक्य साम्राज्य के पूर्वी भाग का अधिष्ठाता था, 615-16 ई. में आंध्र की राजधानी बेंगी के सिंहासन पर बैठा। पूर्वी चालुक्यवंशियों को राष्ट्रकूटों से दीर्घकालीन युद्ध करना पड़ा। अंत में राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों की बादामी शासक शाखा को अपदस्थ कर दिया और दक्षिण पर अधिकार कर लिया। राष्ट्रकूट राजकुमार गोविंद द्वितीय ने आंध्र पर अधिकार कर लिया और तत्कालीन शासक कुब्ज विष्णुवर्धन् के दूरस्थ उत्तराधिकारी, विष्णुवर्धन चतुर्थ को आत्मसमर्पण के लिये बाध्य किया। विष्णुवर्धन् चतुर्थ अपने मुखिया गोविंद द्वितीय के पक्ष में राष्ट्रकूट ध्रुव तृतीय के विरुद्ध बंधुघातक युद्ध लड़ा और उसके साथ पराजय का साझीदार बना। उसने ध्रुव तृतीय और उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी गोविंद तृतीय के प्रभत्व को मान्यता दे दी। तदनंतर पुत्र विजयादित्य द्वितीय कई वर्षों तक स्वतंत्रता के लिये गोविंद तृतीय से लड़ा, किंतु असफल रहा। राष्ट्रकूट सम्राट् ने उसे अपदस्थ कर दिया और आंध्र के सिंहासन के लिये भीम सलुक्की को मनोनीत किया। गोविंद तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी अमोघवर्ष प्रथम के राज्यकाल में विजयादित्य ने भीम सलुक्की को परास्त कर दिया, आंध्र पर पुन: अधिकार कर लिया ओर दक्षिण को जीतता हुआ, विजयकाल में कैंबे (खंभात) तक पहुँच गया जो ध्वस्त कर दिया गया था।
तत्पश्चात् उसके प्रतिहार राज्य पर आक्रमण किया किंतु प्रतिहार वाग्भट्ट द्वितीय द्वारा पराजित हुआ। घटनावशात् शत्रुओं में तंग आकर उसे अपने देश की शरण लेनी पड़ी। विजयादित्य द्वितीय के पौत्र विजयादित्य तृतीय (844-888ई.) ने उत्तरी अर्काट के पल्लवों को पराजित किया, तंजोर के कोलाओं को उनके देश के पंड्याओं पर पुनर्विजय में सहायता दी, राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय और उसके सबंधी दहाल के कलचुरी संकरगण और कालिंग के गंगों को परास्त किया और किरणपुआ तथा चक्रकूट नगरों को जलवा दिया। 10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुहयुद्ध हुआ और बदप ने, जो चालुक्य साम्रज्य का पार्श्ववर्ती भाग था, राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय को सहायता देकर तत्कलीन चालुक्य शासक दानार्णव को परास्त कर दिया। फिर वेंगो के सिंहासन पर अवैध अधिकार कर लिया, जहाँ पर उसने और उसे उत्तराधिकारियों ने 999 ई. तक राज्य किया। अंत में दानार्णव के पुत्र शक्तिवर्मन् ने सभी शत्रुओं को परास्त करने और अपने देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।
शक्तिवर्मन् का उत्तराधिकार उसके छोटे भाई विमलादित्य ने सँभाला। उसके पश्चात् उसका पुत्र राजराज (1018-60) उत्तराधिकारी हुआ। राजराज ने तंजोर के राजेंद्रचोल प्रथम की कन्या से विवाह किया और उससे उसको कुलोत्तुंग नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में चोल राजधानी में अपनी नानी तथा राजेंद्रचोल की रानी के पास रहा। सन् 1060 में राजराज अपने सौतेले भाई विक्रमादित्य सप्तम द्वारा अदस्थ किया गया जो वेंगी के सिंहासन पर 1076 तक रहा। सन् 1070 में राजराज के पुत्र कुलोत्तुंग ने चोल देश पर सार्वभौमिक शासन किया और सन् 1076 में अपने चाचा विजादित्य सप्तम को पराजित कर आंध्र को अपने राज्य में मिला लिया। कुलोत्तुंग और उसके उत्तराधिकारी, जो "चोल" कहलाना पसंद करते थे, सन् 1271 तक चोल देश पर शासन करते रहे।
ऊपर इसका उल्लेख किया जा चुका है कि बादामी का चालुक्य कीर्तिवर्मन् द्वितीय 8वीं शती के मध्यभाग में राष्ट्रकूटों द्वारा पदच्युत कर दिया गया, जिन्होंने बाद में दक्षिण में दो सौ वर्षों से अधिक काल तक राज्य किया। इस काल में कीर्तिवर्मन् द्वितीय का भाई भीम और उसके उत्तराधिकारी राष्ट्रकूटों के सामंतों की हैसियत से बीजापुर जिले में राज्य करते रहे। इन सांमतों में अंतिम तैल द्वितीय ने दक्षिण में राष्ट्रकूटों के शासन को समाप्त कर दिया और 973 ई. में देश में सार्वभौम सत्ता स्थापित कर ली। वह बड़ी सफलता के साथ चोलों और गंगों से लड़ा और तैल की प्रारंभिक राजधानी मान्यखेट थी। सन् 993 के कुछ दिनों पश्चात् राजधानी का स्थानांतरण कल्याणी में हो गया जो अब बिहार में है। तैल का पौत्र जयसिंह (सन् 1015-1042) परमार भोज और राजेंद्र चोल से सफलतापूर्वक लड़ा।
जयसिंह का बेटा सोमेश्वर (1042-1068) भी चोलों से बड़ी सफलतापूर्वक लड़ा और लाल, मालवा तथा गुर्जर को रौंद डाला। उसका उत्तराधिकार उसके पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने 1069 में सँभाला जिसे उसके छोटे भाई विक्रमादित्य षष्ठ ने 1076 ई. में अपदस्थ कर दिया। विक्रमादित्य कुलोत्तुंग प्रथम से आंध्र देश पर अधिकार करने के निमित्त लड़ा। युद्ध के विभिन्न परिणाम हुए और कुलोत्तंग प्रथम की मृत्यु के पश्चात् (1018 ई.) कुछ काल तक के लिये विक्रमादित्य ने उस प्रदेश कर अपना प्रभुत्व स्थापित रखा। उसने द्वारसमुद्र के "होयसलों" और देवगिरि के यादवों के विद्रोहों का दमन किया और लाल तथा गुर्जर को लूट लिया। उसके दरबार की शोभा कश्मीरी कवि "विल्हण" से थी, जिसने विक्रमांकदेवचरित लिखा है। विक्रमादित्य षष्ठ के पौत्र तैल तृतीय के शासनकाल में सन् 1156 में कलचुरी बिज्जल ने दक्षिण पर सार्वभौम अधिकार कर लिया और चालुक्य सम्राट् की मृत्यु के पश्चात् सन् 1163 में अपने को सम्राट् घोषित कर दिया। तैल तृतीय के पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ ने 1181 में कलचुरी से पुन: राजसिंहासन छीन लिया, किंतु 1184 के लगभग फिर यादव भिल्लम को समर्पण करना पड़ा। उसके उत्तराधिकारियों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं हैं। चालुक्यवंश की तीन प्रमुख शाखाओं के साथ, जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है, कुछ दूसरी शाखाएँ भी थीं जिन्होंने दक्षिण आंध्र और गुजरात आदि के कुछ भागों में प्रारंभिक काल में शासन किया।
गुर्जर और चालुक्य
डी आर भंडारकर, होर्नले जैसे इतिहासकारों का मानना है कि चालुक्य गुर्जरों के शासक वंश में से एक थे। भंडारकर ने यह बात रखी कि गुजरात को लता के रूप में जाना जाता था, इससे पहले कि चालुक्यों के समय गुर्जरात्रा के रूप में जाना जाता था। यदि चालुक्य गुर्जर नहीं होते, तो यह समझ से बाहर है कि उस प्रांत का नाम गुर्जरात्रा (गुर्जरों द्वारा शासित या संरक्षित देश) कैसे हो सकता है। जब यह उनके आगमन तक लता के रूप में जाना जाता था। हालांकि डीपी दीक्षित जैसे विद्वानों का तर्क है कि चालुक्यों ने देश के उस हिस्से पर शासन किया जिसे पहले लता के नाम से जाना जाता था और गुर्जरात्रा या गुजरात के रूप में लिया जाता था, इसका मतलब यह नहीं था कि चालुक्यों ने कोई बदलाव नहीं किया था। इस क्षेत्र के साथ उनके घनिष्ठ संबंध के कारण नामकरण।[3] डॉ.वी. ए स्मिथ और ए एम टी जैक्सन ने भी इस विचार का समर्थन किया कि चालुक्य प्रसिद्ध गुर्जरों की शाखा थे।
पुलकेशिन प्रथम चालुक्य वंश का प्रथम वास्तविक शासक था । चालुक्यों की यह शाखा मुख्य शाखा थी । चालुक्य नरेशों की पूर्ण उपाधि सत्याश्रय श्री पृथिवीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर भट्टारक थी। इसमें से परमेश्वर का सर्वप्रथम उपयोग हर्षवर्धन पर पुलकेशिन् द्वितीय की विजय के बाद हुआ और महाराजाधिराज तथा भट्टारक सर्वप्रथम विक्रमादित्य प्रथम के समय प्रयुक्त हुए। राजवंश के योग्य व्यक्तियों को राज्य में अधिकार के पदों पर नियुक्त किया जाता था। राज्य में रानियों का महतव भी नगण्य नहीं होता था। विजित प्रदेश के शासकों को विजेता की अधीनता स्वीकार कर लेने पर शासन पर अधिकार फिर से प्राप्त हो जाता था। अभिलेखों में सामंत और महत्तर के अतिरिक्त विषयपति, देशधिपति, महासांधिविग्रहिक, गामुंड, ग्रामभोगिक और करण के उल्लेख मिलते हैं। राज्य राष्ट्र, विषय, नाडु और ग्रामों में विभक्त था। राज्य के करों में निधि, उपनिधि, क्लृप्त, उद्रंग और उपरिकर के अतिरिक्त मारुंच, आदित्युंच, उचमन्न और मरुपन्न आदि स्थानीय करों के उल्लेख हैं। मकानों और उत्सवों पर भी कर था। व्यापारी संघ स्वयं अपने ऊपर भी कर लगाया करते थे। चालुक्यों को सेना संगठित और शाक्तिशाली थी। इसका उल्लेख युवानच्वां ने किया है और इसका समर्थन चालुक्यों की विजय से, विशेष रूप से हर्ष पर सिद्ध होता है। उसका कहना है कि पराजित सेनापति को कोई दंड नहीं दिया जाता, केवल उसे स्त्रियों के वस्त्र पहनने पड़ते हैं। चालुक्यों की नौसेना की शक्ति भी नगण्य नहीं थी।
युवान च्वांं ने लिखा है मिट्टी अच्छी और उपजाऊ है, बराबर जोती जाती है और इससे बहुत अधिक उपज होती है। उसने महाराष्ट्र के निवासियों को गर्वीला और युद्धप्रिय बतलाया है एवं कहा है कि वे उपकार के प्रति कृतज्ञ और अपकार के प्रति प्रतिशोधक होते है, विपन्न और शरणगत के लिये वे आत्मबलिदान तक करने को तत्पर रहते हैं और अपमान करनेवाले की हत्या की उन्हें पिपासा होती है। स्त्रियों में उच्चकुलों में शिक्षा के प्रसार के कई प्रमाण हैं। मंदिर सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के विशिष्ट केंद्र थे। आर्थिक जीवन में श्रेणियों का महत्व था। कांस्यकार और तेलियों की श्रेणियों के उल्लेख अभिलेखों में मिलते हैं। लक्ष्मेश्वर के अभिलेख में युवराज विक्रमादित्य द्वारा पोरिगिरे स्थान के महाजनों, नगर और 18 प्रकृतियों को दी गई आचारव्यवस्था का विवरण है। राज्य की ओर से तौल और मान में आदर्श रूप प्रस्तुत किया गया था।
ब्राह्मण धर्म उन्नति पर था। चालुक्य नरेश विष्णु अथवा शिव के उपासक थे। उन्होंने इन देवताओं की पूजा के लिये पट्टकल, बादामी आदि स्थानों पर भव्य मंदिर निर्मित किए। ग्रहण के अवसर पर वे दान देते थे और स्मृतियों के आदर्श पर व्रत और दान करते थे। वे वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान करते थे और विद्वान् ब्राह्मणों का संत्कार करते थे। किंतु धार्मिक विषयों में वे सहिष्णु थे तथा जैनियों का आदर करते थे। और उन्हें भी दान देते थे। चालुक्य राज्य में जैन धर्म उन्नत दशा में था। राज्य में कई उल्लेखनीय जैन मंदिर भी बनवाए गए। बौद्ध धर्म की स्थिति के लिये हमारे पास कोई समकालीन पुरातत्व का प्रमाण नहीं है। युवान च्वां का कथन है कि महाराष्ट्र में सौ से ऊपर बौद्ध विहार और पाँच हजार से ऊपर बौद्ध भिक्षु थे।
भूटाननाथ मंदिर परिसर, बादामी
युवानच्वांड के अनुसार लोगों को ज्ञानार्जन की रुचि थी। राजवंश के व्यक्ति स्वयं विद्याओं और शास्त्रों का अध्ययन करते थे और विद्वानों को दान के द्वारा प्रोत्साहन देते थे। वातापी शिक्षा और ज्ञान के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध थी। संस्कृत साहित्य के विभिन्न अंगों का अध्ययन होता था। अभिलेखों की भाषाशैली पर प्रसिद्ध काव्यग्रंथों का प्रभाव स्पष्ट है। एहोळे प्रशस्ति की रचना जैन कवि रविकीर्ति ने की थी। जैनेंद्र व्याकरण के रचयिता पूज्यवाद इसी काल के थे। विजयांका अथवा विज्जिका, जिसकी गणना राजशेखर ने वैदर्भी शैली का प्रयाग करने में केवल कालिदास के बाद की है, संभवत: चंद्रादित्य की रानी विजयभट्टारिका ही थी। सोमदेवसूरि ने यशस्तिलकचंपू और नीतिवाक्या मृत की रचना वेमुलवाड के चालुक्यों के संरक्षण में की थी। कन्नड साहित्य के इतिहास में भी इस काल का योगदान महत्वपूर्ण है। श्री वर्धदेव ने तत्वार्थमहाशास्त्र पर चूडामणि नाम की टीका लिखी। श्यामकुंदाचार्य प्राकृत, संस्कृत और कर्णाट भाषाओं के लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं। कन्नड भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि और आदिपुराण तथा विक्रमार्जुनविजय के रचयिता पंप वेमुलवाड के चालुक्य नरेश अरिकेसरि द्वितीय के दरबार में थे।
ऐहोले, मेगृति और बादामी के मंदिरों से दक्षिण के मंदिरों का इतिहास प्रारंभ होता है। पट्टकल के मंदिरों में इनके विकास का दूसरा चरण परिलक्षित होता है इन मंदिरों से मूर्तियों की संख्या में वृद्धि के साथ ही इनकी शैली में भी विकास मिलता है। ठोस चट्टानों को काटकर मंदिरों का निर्माण करने की कला में अद्भुत कुशलता दिखलाई पड़ती है। लोकेश्वर मंदिर के निर्माता श्रीगुंडन् अनिवारिताचारि ने अनेक नगरों की निर्माणयोजना की थी और अनेक वास्तु, यान, आसन, शयन, मणिमुकुट और रत्नचूड़ामणि आदि बनाए थे। वह त्रिभुवनाचारि और दक्षिण देश के सूत्रधार के रूप में प्रसिद्ध थे। विद्वान् अजंता के भित्तिचित्रों में से कुछ को इसी काल की कृति मानते हैं। पट्टदकल के अभिलेख में भी शिल्पकारों और मूर्तिकारों के एक वंश की तीन पीढ़ियों का उल्लेख है। एक अभिलेख में भरत की परंपरा पर आधारित नृत्य के एक नए ग्रंथ की लोकप्रियता का उल्लेख है जिसने अन्य विरोधी पद्धतियों पर विजय प्राप्त की थी।
लकुंडी (गडग जिला) में स्थित जैन मंदिर
इनके राजचिह्रों में मयूरध्वज भी था। इनका पूर्ण विरुद था- समस्त भुवनाश्रय श्रीपृथिवीवल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक सत्याश्रयकुलतिलक चालुक्याभरण श्रीमत् -जिसके अंत में मल्ल अंतवाली राजा की विशिष्ट उपाधि होती थी। राजवंश के व्यक्तियों को विभिन्न प्रदेशों के करों का भाग भुक्ति के रूप में मिलता था। युवराज को राज्य के दो प्रमुख प्रांतों का शासन दिया जाता था। सामंतों के अभिलेखों में उनके अधिपति के वंशावली के बाद "तत्पाद पद्मोपजीवि" के साथ उनका स्वयं का उल्लेख होता था। उनके अभिलेख में राज्य की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि और आचंद्रार्क-स्थायित्व सूचक शब्दों का अभाव होता था। स्त्रियों को भी प्रांत और दूसरे प्रादेशिक विभाजनों का शासन दे दिया जाता था। चालुक्यों के अभिलेखों में कई राजगुरुओं के उल्लेख हैं।
राज्य के वैभव के प्रदर्शन की भावना बढ़ रही थी। इसी के साथ शासनव्यवस्था की जटिलता बढ़ रही थी। उदाहरणार्थ, सांधिविग्रहिक के साथ ही हमें कन्नडसांधिविग्रहिक, लाटसांधिविग्रहिक और हेरिसांधिविग्रहिक के उल्लेख मिलते हैं। राजभवन में सेवकों और अधिकारियों में कई रंग दिखलाई पड़ते हैं। चालुक्य अभिलेखों में अनेक योग्य मंत्रियों तथा अधिकारियों के नाम मिलते हैं जिन्होंने चालुक्यों के गौरव को बढ़ाने में विशेष योग दिया था। ऐसे अधिकारी प्राय: एक से अधिक पदों पर रहते थे। विशिष्ट गौरवप्राप्त अधिकारियों और विशिष्ट सैनिकों का एक वर्ग था जे सहवासि कहलाता था। वह सदैव सम्राट् के साथ रहता था और उसकी सेवा में प्राण तक त्यागने के लिय प्रस्तुत रहता था। पद प्राय: वंशगत होते थे और वेतन के स्थान पर भुक्ति अथवा कर का भाग देने का प्रचलन था। विशिष्ट सेवा के लिये विशेष उपाधियों और विशेष चिह्रों के उपयोग का अधिकार दिया जाता था। सैनिक अधिकारियों में सेनाधिपति, महादंडनायक, दंडनायक और कतितुरगसाहिनि के उल्लेख मिलते हैं। सेना में सभी जाति और वर्ग के लोग संमिलित होते थे। राज्य राष्ट्र, विषय, नाड्ड, कंपण और ठाण में विभक्त था। किंतु इन प्रादेशिक विभाजनों के साथ अभिलेखों में जो संख्याएँ प्रयुक्त हुई हैं उनका निश्चित महत्व अभी तक नहीं स्पष्ट हो पाया है। शासन में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विशेष स्थान था। इनमें से कुछ का स्वरूप सामाजिक और धार्मिक भी था। नगरों का प्रबंध करनेवाली सभाएँ महाजन के नाम से प्रसिद्ध थीं। गांवों की संस्थाएँ, जो मुख्यत: चोल संस्थाओं जैसी थीं, पहले की तुलना में अधिक सक्रिय थीं। ये सामूहिक संस्थाएँ परस्पर सहयोग के साथ काम करती थीं और सामाजिक जीवन में उपयोगी अनेक कार्यों का प्रबंध करती थीं। गाँव के अधिकारियों में उरोडेय, पेर्ग्गडे, गार्वुड, सेनबोव और कुलकर्णि के नाम मिलते हैं। राज्य द्वारा लिए जानेवाले कर प्रमुख रूप से दो प्रकार के थे : आय, यथा सिद्धाय, पन्नाय और दंडाय तथा शुंक, यथा वड्डरावुलद शुंक, पेर्ज्जुक और मन्नेय शुंक। इनके अतिरिक्त अरुवण, बल्लि, करवंद, तुलभोग और मसतु का भी निर्देश है। मनेवण गृहकर था, कन्नडिवण (दर्पणक) संभवत: नर्तकियों से लिया जाता था और बलंजीयतेरे व्यापारियों पर था। विवाह के लिये बनाए गए शामियानों पर भी कर का उल्लेख मिलता हैं। इस काल क संस्कृति का स्वरूप उदार और विशाल था और उसमें भारत के अन्य भागों के प्रभाव भी समाविष्ट कर लिए गए थे। स्त्रियों के सामाजिक जीवन में भाग लेने पर बंधन नहीं थे। उच्च वर्ग की स्त्रियों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी। नर्तकियों (सूलेयर) की संख्या कम नहीं थी। सतीप्रथा के भी कुछ उल्लेख मिलते हैं। महायोग, शूलब्रह्म और सल्लेखन आदि विधियों से प्राणोत्सर्ग के कुछ उदाहरण मिलते हैं। दिवंगत संबंधी, गुरु अथवा महान व्यक्तियों की स्मृति में निर्माण कराने को परोक्षविनय कहते थे। पोलो जैसे एक खेल का चलन था। मंदिर सामाजिक और आर्थिक जीवन के भी केंद्र थे। उनमें नृत्य, गीत और नाटक के आयोजन होते थे। संगीत में राजवंश के कुछ व्यक्तियों की निपुणता का उल्लेख मिलता है। सेनापति रविदेव के लिये कहा गया है कि जब वह अपना संगीत प्रस्तुत करता था, लोग पूछते थे कि क्या यह मधु की वर्षा अथवा सुधा की सरिता नहीं हैं?
पट्टडकल में स्थित "द्रविड़" शैली में विरुक्ष्क्ष मंदिर, 740 ई में निर्मित
कृषि के लिये जलाशयों के महत्व के अनुरूप ही उनके निर्माण और उनकी मरम्मत के लिये समुचित प्रबंध होता था। आर्थिक दृष्टि से उपयोगी फसलें, जैसे पान, सुपारी कपास और फल, भी पैदा की जाती थीं। उद्योगों और शिल्पों की श्रेणियों के अतिरिक्त व्यापारियों के भी संघ थे। व्यापारियों ने कुछ संघ, तथा नानादेशि और तिशैयायिरत्तु ऐंजूर्रुवर् का संगठन अत्यधिक विकसित था और वे भारत के विभिन्न भागों और विदेशों के साथ व्यापार करते थे। इस काल के सिक्कों के नाम हैं- पोन् अथवा गद्याण, पग अथवा हग, विस और काणि। जयसिंह, जगदेकमल्ल और त्रैयोक्यमल्ल के नाम के सोने और चाँदी के सिक्के उपलब्ध होते हैं। मत्तर, कम्मस, निवर्तन और खंडुग भूमि नापने की इकाइयाँ थी किंतु नापने के दंड का कोई सुनिश्चित माप नहीं था। संभवत: राज्य की ओर से नाप की इकाइयों का व्यवस्थित और निश्चित करने का प्रयत्न हुआ था।
सहनशीलता और उदारता इस युग के धार्मिक जीवन की विशेषताएँ थीं। सभी धर्म और संप्रदाय समान रूप से राजाओं और सामंतों के दान के पात्र थे। ब्राह्मण धर्म में शिव और विष्णु की उपासना का अधिक प्रचलन था, इनमें भी शिव की पूजा राजवंश और देश दोनों में ही अधिक जनप्रिय थी। कलचूर्य लोगों के समय में लिंगायत संप्रदाय के महत्व में वृद्धि हुई थी। कोल्लापुर महालक्ष्मी की शाक्त विधि से पूजा का भी अत्यधिक प्रचार था। इसके बाद कार्तिकेय की पूजा का महत्व था। बौद्ध धर्म के प्रमुख केंद्र बेल व गावे और डंबल थे। किंतु बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म का प्रचार अधिक था।
वेद, व्याकरण और दर्शन की उच्च शिक्षा के निमित्त राज्य में विद्यालय या घटिकाएँ थीं जिनकी व्यवस्था के लिये राज्य से अनुदान दिए जाते थे। देश में ब्राह्मणों के अनेक आवास अथवा ब्रह्मपुरी थीं जो संस्कृत के विभिन्न अंगों के गहन अध्ययन के केंद्र थीं।
वादिराज ने जयसिंह द्वितीय के समय में पार्श्वनाथचरित और यशोधरचरित्र की रचना की। विल्हण की प्रसिद्ध रचना विक्रमांकदेवचरित में विक्रमादित्य षष्ठ के जीवनचरित् का विवरण है। विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपनी प्रसिद्ध टीका मिताक्षरा की रचना विक्रमादित्य के समय में ही की थी। विज्ञानेश्वर के शिष्य नारायण ने व्यवहारशिरोमणि की रचना की थी। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थीचिंतामणि जिसमें राजा के हित और रुचि के अनेक विषयों की चर्चा है सोमेश्वर तृतीय की कृति थी। पार्वतीरुक्तिमणीय का रचयिता विद्यामाधव सोमेश्वर के ही दरबार में था। सगीतचूड़ामणि जगदेकमल्ल द्वितीय की कृति थी। संगीतसुधाकर भी किसी चालुक्य राजकुमार की रचना थी। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में यह युग अत्यंत समृद्ध था। कन्नड भाषा के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुए। षट्पदी और त्रिपदी छंदों का प्रयोग बढ़ा। चंपू काव्यों की रचना का प्रचलन समाप्त हो चला। रगले नाम के विशेष प्रकार के गीतों की रचना का प्रारंभ इसी काल में हुआ। कन्नड साहित्य के विकास में जैन विद्वानों का प्रमुख योगदान था। सुकुमारचरित्र के रचयिता शांतिनाथ और चंद्रचूडामणिशतक के रचयिता नागवर्माचार्य इसी कल में हुए। रन्न ने, जो तैलप के दरबार का कविचक्रवर्ती था, अजितपुराण और साहसभीमविजय नामक चंपू, रन्न कंद नाम का निघंटु और परशुरामचरिते और चक्रेश्वरचरिते की रचना की। चामंुडराय ने 978 ई. में चामुंडारायपुराण की रचना की। छंद.
बुधि और कर्णाटककादंबरी की रचना नागवर्मा प्रथम ने की थी। दुर्गसिंह ने अपने पंचतंत्र में समकालीन लेखकों में मेलीमाधव के रचयिता कर्णपार्य, एक नीतिग्रंथ के रचयिता कविताविलास और मदनतिलक के रचयिता चंद्रराज का उल्लेख किया है। श्रीधराचार्य को गद्यपद्यविद्याधर की उपाधि प्राप्त थी। चंद्रप्रभचरिते के अतिरिक्त उसने जातकतिलक की रचना की थी जो कन्नड में ज्योतिष का प्रथम ग्रंथ है। अभिनव पंप के नाम से प्रसिद्ध नागचंद्र ने मल्लिनाथपुराण और रामचंद्रचरितपुराण की रचना की। इससे पूर्व वादि कुमुदचंद्र ने भी एक रामायण की रचना की थी। नयसेन ने धर्मामृत के अतिरिक्त एक व्याकरण ग्रंथ भी रचा। नेमिनाथपुराण कर्णपार्य की कृति है। नागवर्मा द्वितीय ने काव्यालोकन, कर्णाटकभाषाभूषण और वास्तुकोश की रचना की। जगद्दल सोमनाथ ने पूज्यवाद के कल्याणकारक का कन्नड में अनुवाद कर्णाटक कल्याणकारक के नाम से किया। कन्नड गद्य के विकास में वीरशैव लोगों का विशेष योगदान था। प्राय: दो सौ लेखकों के नाम मिलते हैं जिनमें कुछ उल्लेखनीय लेखिकाएँ भी थीं। बसव और अन्य वीरशैव लेखकों ने वचन साहित्य को जन्म दिया जिसमें साधारण जनता में वीरशैव सिद्धांतों के प्रचलन के लिये सरल भाषा का उपयोग किया गया। कुछ लिंगायत विद्वानों ने कन्नड साहित्य के अन्य अंगों को भी समृद्ध किया।
अभिलेखों में प्रस्तर के कुछ कुशल शिल्पियों के नाम मिलते हैं यथा शंकरार्य, नागोज और महाकाल। चालुक्य मंदिरों की बाहरी दीवारों और दरवाजों पर सूक्ष्म अलंकारिता मिलती है। मंदिरों के मुख्य प्रवेशद्वार पार्श्व में हैं। विमान और दूसरे विषयों में भी इन मंदिरों का विकसित रूप होयसल मंदिरों में दिखलाई पड़ता है। इन मंदिरों के कुछ उल्लेखनीय उदाहरण हैं लक्कुंदि में काशिविश्वेश्वर, इत्तगि में महादेव और कुरुवत्ति में मल्लिकार्जुन का मंदिर।
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