मध्यकालीन भारत के सबसे प्रसिद्ध संत
रामानुज (1060-1118)
भक्ति आंदोलन के सबसे पहले प्रतिपादक रामानुज थे जिन्हें उनके शिक्षक यमुनामुनी का उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया था। उन्होंने पूरे भारत की यात्रा की और अंततः श्रीरंगम में बस गए।
उन्होंने एक ध्वनि आधार पर वैष्णववाद की स्थापना की। उन्होंने विश्वस्तत्व सिद्धान्त या योग्य अद्वैतवाद की स्थापना की और उनके अनुसार, कर्म, ज्ञान और भक्ति के माध्यम से मोक्ष का मार्ग निहित है। उन्होंने श्रीबास्य और गीताभ्यास लिखा।
भक्ति आंदोलन के अगले नेता निंबार्क थे, जो रामानुज के समकालीन थे। वह कृष्ण और राधा के उपासक थे। उन्होंने द्वैतवाद या द्वैतवादी अद्वैतवाद की स्थापना की। उन्होंने वेदांत परिजात-सूत्र, ब्रह्मसूत्र पर एक टीका लिखी। वह मथुरा में बस गए।
माधवाचार्य
वह शंकराचार्य और रामानुज के साथ वेदांत प्रणाली के तीन प्रमुख दार्शनिकों में से एक के रूप में रैंक करते हैं। उन्होंने द्वैत या द्वैतवाद को प्रतिपादित किया। उनके अनुसार, मनुष्य का अंतिम उद्देश्य हरि की प्रत्यक्ष धारणा है जो मोक्ष या अनन्त आनंद की ओर ले जाता है।
वल्लभाचार्य (1479-1531):
वाराणसी में जन्मे, उन्होंने सुधाद्वैत वेदांत (शुद्ध गैर-द्वैतवाद) और दर्शन को पुष्टिमार्ग (अनुग्रह का मार्ग) का प्रस्ताव दिया और उन्होंने रुद्र सम्प्रदाय नामक एक विद्यालय की स्थापना की। उन्होंने श्री कृष्ण के साथ ब्राह्मण की पहचान की, जिसमें सत (बीइंग), नागरिक (चेतना) और आनंद (आनंद) थे। उनके अनुसार, मोक्ष स्नेहा (भगवान के लिए गहरी जड़ें प्रेम) के माध्यम से है। वह संस्कृत और ब्रजभाषा में कई विद्वानों के लेखक थे, जो महत्वपूर्ण सुबोधिनी और सिद्धांत रहस्या थे।
रामानंद (पंद्रहवीं सदी):
प्रयाग में जन्मे, वे उत्तर भारत के पहले महान भक्ति संत थे। उन्होंने जन्म, जाति, पंथ या लिंग भेद के बिना भक्ति का द्वार सभी के लिए खोल दिया। वह राम के उपासक थे और दो महान सिद्धांतों में विश्वास करते थे, जैसे कि ईश्वर और मानव भाईचारे के लिए पूर्ण प्रेम।
उनके शिष्यों में शामिल थे:
कबीर, एक मुस्लिम बुनकर;
नामदेव:
नामदेव, जो पहली शताब्दी के पहले भाग में फले-फूले थे, एक दर्जी थे, जिन्होंने संत बनने से पहले दस्यु सरगना को ले लिया था।
उनकी कविता जो मराठी में लिखी गई थी, उसमें ईश्वर के प्रति गहन प्रेम और समर्पण की भावना है। कहा जाता है कि नामदेव ने दूर-दूर तक यात्रा की और दिल्ली में सूफी संतों के साथ चर्चा में लगे रहे।
चैतन्य (1485-1534)
चैतन्य भक्ति आंदोलन के सबसे महान संत थे। बंगाल में नवद्वीप में जन्मे, उनका मूल नाम विश्वम्भर मिश्र था। वह अपने कीर्तन के माध्यम से बंगाल में वैष्णववाद की लोकप्रियता के लिए जिम्मेदार था। उन्होंने अचिंतयबेदेभेदवद स्कूल ऑफ थियोलॉजी शुरू किया। उन्होंने एक सर्वोच्च व्यक्ति के रूप में, जिसे उन्होंने कृष्ण या हरि कहा था, गहन धर्म का प्रचार किया।
उन्होंने कृष्ण और राधा को स्वीकार किया और वृंदावन में अपने जीवन को आध्यात्मिक बनाने का प्रयास किया। वह स्थायी रूप से पुरी में बस गए जहां उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद, उनके अनुयायियों ने उनकी शिक्षाओं को व्यवस्थित किया और खुद को गौड़ीय वैष्णववाद नामक संप्रदाय में संगठित किया। कृष्णदास कविराज ने उनकी जीवनी, चैतन्यचरित्रमित्र लिखी।
चैतन्य चरितामृत के अनुसार चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन १४८६ की फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक गांव में हुआ,[2] जिसे अब मायापुर कहा जाता है। इनका जन्म संध्याकाल में सिंह लग्न में चंद्र ग्रहण के समय हुआ था। उस समय बहुत से लोग शुद्धि की कामना से हरिनाम जपते हुए गंगा स्नान को जा रहे थे। तब विद्वान ब्राह्मणों ने उनकी जन्मकुण्डली के ग्रहों और उस समय उपस्थित शगुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की, कि यह बालक जीवन पर्यन्त हरिनाम का प्रचार करेगा।यद्यपि बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे, क्योंकि कहते हैं, कि ये नीम के पेड़ के नीचे मिले थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे।
इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शची देवी था।निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम आयु में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद्चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। १५-१६ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन १५०५ में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया
मीराबाई (1498-1546)
भक्ति आंदोलन के एक महान संत, वह मेड़ता के रत्न सिंह राठौर की एकमात्र संतान थे। उन्होंने 1516 में राणा सांगा के सबसे बड़े बेटे और उत्तराधिकारी भोजराज से शादी की थी। वह बचपन से ही अत्यधिक धार्मिक थे और वैष्णववाद के कृष्ण पंथ के अनुयायी थे। अपने पति की मृत्यु के बाद, उन्होंने अपने आप को पूरी तरह से धार्मिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। कहा जाता है कि मीराबाई ने कई भक्ति गीतों की रचना की है।
मीराबाई का जन्म सन 1498 ई॰ में पाली के कुड़की गांव में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं। मीरा का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ। चित्तौड़गढ़ के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, किन्तु मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। मीरा के पति का अंतिम संस्कार चित्तोड़ में मीरा की अनुपस्थिति में हुआ। पति की मृत्यु पर भी मीरा माता ने अपना श्रृंगार नहीं उतारा, क्योंकि वह गिरधर को अपना पति मानती थी।
वे विरक्त हो गईं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृन्दावन गई। वह जहाँ जाती थी, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का समय रहा है। बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध खानवा का युद्ध उसी समय हुआ था। इन सभी परिस्थितियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धति सर्वमान्य बनी।
तुलसीदास (1532-1623)
वे एक महान कवि और राम के भक्त थे। उन्होंने प्रसिद्ध रचना की। रामचरितमानस हिंदी में, हिंदू धर्म के विभिन्न पहलुओं को उजागर करता है। उनकी अन्य रचनाएँ विनय-पत्रिका और कवितावली हैं।
गोस्वामी तुलसीदास का जन्म स्थान विवादित है। कुछ लोग मानते हैं की इनका जन्म सोरों शूकरक्षेत्र, वर्तमान में कासगंज (एटा) उत्तर प्रदेश में हुआ था।कुछ विद्वान् इनका जन्म राजापुर जिला बाँदा (वर्तमान में चित्रकूट) में हुआ मानते हैं। जबकि कुछ विद्वान तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर को मानने के पक्ष में हैं।
राजापुर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत स्थित एक गाँव है। वहाँ आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित संध्या नंददास भक्तिकाल में पुष्टिमार्गीय अष्टछाप के कवि नंददास जी का जन्म जनपद- कासगंज के सोरों शूकरक्षेत्र अन्तर्वेदी रामपुर (वर्त्तमान- श्यामपुर) गाँव निवासी भरद्वाज गोत्रीय सनाढ्य ब्राह्मण पं० सच्चिदानंद शुक्ल के पुत्र पं० जीवाराम शुक्ल की पत्नी चंपा के गर्भ से सम्वत्- 1572 विक्रमी में हुआ था। पं० सच्चिदानंद के दो पुत्र थे, पं० आत्माराम शुक्ल और पं० जीवाराम शुक्ल। पं० आत्माराम शुक्ल एवं हुलसी के पुत्र का नाम महाकवि गोस्वामी तुलसीदास था, जिन्होंने श्रीरामचरितमानस महाग्रंथ की रचना की थी। नंददास जी के छोटे भाई का नाम चँदहास था। नंददास जी, तुलसीदास जी के सगे चचेरे भाई थे। नंददास जी के पुत्र का नाम कृष्णदास था। नंददास ने कई रचनाएँ- रसमंजरी, अनेकार्थमंजरी, भागवत्-दशम स्कंध, श्याम सगाई, गोवर्द्धन लीला, सुदामा चरित, विरहमंजरी, रूप मंजरी, रुक्मिणी मंगल, रासपंचाध्यायी, भँवर गीत, सिद्धांत पंचाध्यायी, नंददास पदावली हैं। ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत्1511के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहाँ तुलसीदास का जन्म हुआ। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दाँत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला पड़ गया। उनके जन्म के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।
सूरदास (1479-1584)
एक संत और कवि के रूप में, उन्होंने एक व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति के धर्म का प्रचार किया। सूरदास भगवान कृष्ण और राधा के भक्त थे। उन्होंने अपने कार्यों में ब्रजभाषा का उपयोग किया, जिसमें सूरसागर, साहित्य रत्न और सूर सरावली शामिल हैं।
सूरदास की सही जन्म तिथि के बारे में असहमति है, विद्वानों के बीच आम सहमति के साथ इसे वर्ष 1478 में माना जाता है। सूरदास का जन्मदिन वैष्णव कैलेंडर में सूरदास जयंती के रूप में मनाया जाता है, वैशाख के हिंदू महीने के 5 वें दिन। . हम उनकी मृत्यु की सही तारीख के बारे में अनिश्चित हैं, लेकिन इसे कहीं 1561 और 1584 के बीच माना जाता है। (उम्र 101 वर्ष)। सूरदास के जन्मस्थान के संबंध में भी कुछ मतभेद हैं, क्योंकि कुछ विद्वानों का कहना है कि उनका जन्म रणुकता या रेणुका गाँव में हुआ था, जो आगरा से मथुरा जाने वाली सड़क पर स्थित है, जबकि कुछ का कहना है कि उनका जन्म दिल्ली के पास सीही नामक गाँव में हुआ था।
एक सिद्धांत के अनुसार, सूरदास जन्म से अंधे थे और उनके गरीब परिवार ने उनकी उपेक्षा की, जिससे उन्हें छह साल की उम्र में अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। बाद में, वे वल्लभ आचार्य से मिले और उनके शिष्य बन गए। वल्लभ आचार्य के मार्गदर्शन और प्रशिक्षण के तहत, सूरदास ने श्रीमद्भागवत को कंठस्थ किया, हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और दार्शनिक और धार्मिक विषयों पर व्याख्यान दिए। वह जीवन भर ब्रह्मचारी रहे
शंकर देव
अन्य प्रसिद्ध सगुण भक्ति संत शंकरदेव थे जिन्होंने असम में वैष्णव भक्ति को लोकप्रिय बनाया।
श्रीमन्त शंकरदेव का जन्म असम के नौगाँव जिले की बरदौवा के समीप अलिपुखुरी में हुआ। इनकी जन्मतिथि अब भी विवादास्पद है, यद्यपि प्राय: यह 1371 शक मानी जाती है। जन्म के कुछ दिन पश्चात् इनकी माता सत्यसंध्या का निधन हो गया। 21 वर्ष की उम्र में सूर्यवती के साथ इनका विवाह हुआ। मनु कन्या के जन्म के पश्चात् सूर्यवती परलोकगामिनी हुई।
शंकरदेव ने 32 वर्ष की उम्र में विरक्त होकर प्रथम तीर्थयात्रा आरम्भ की और उत्तर भारत के समस्त तीर्थों का दर्शन किया। रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी से भी शंकर का साक्षात्कार हुआ था। तीर्थयात्रा से लौटने के पश्चात् शंकरदेव ने 54 वर्ष की उम्र में कालिंदी से विवाह किया। तिरहुतिया ब्राह्मण जगदीश मिश्र ने बरदौवा जाकर शंकरदेव को भागवत सुनाई तथा यह ग्रंथ उन्हें भेंट किया। शंकरदेव ने जगदीश मिश्र के स्वागतार्थ "महानाट" के अभिनय का आयोजन किया। इसके पूर्व "चिह्लयात्रा" की प्रशंसा हो चुकी थी। शंकरदेव ने 1438 शक में भुइयाँ राज्य का त्याग कर अहोम राज्य में प्रवेश किया। कर्मकांडी विप्रों ने शंकरदेव के भक्ति प्रचार का घोर विरोध किया। दिहिगिया राजा से ब्राह्मणों ने प्रार्थना की कि शंकर वेद-विरुद्ध मत का प्रचार कर रहा है। कतिपय प्रश्नोत्तर के पश्चात् राजा ने इन्हें निर्दोष घोषित किया। हाथीधरा कांड के पश्चात् शंकरदेव ने अहोम राज्य को भी छोड़ दिया। पाटवाउसी में 18 वर्ष निवास करके इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। 67 वर्ष की अवस्था में इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की। 97 वर्ष की अवस्था में इन्होंने दूसरी बार तीर्थयात्रा आरम्भ की। उन्होंने कबीर के मठ का दर्शन किया तथा अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। इस यात्रा के पश्चात् वे बरपेटा वापस चले आए। कोच राजा नरनारायण ने शंकरदेव को आमंत्रित किया। कूचबिहार में 1490 शक में वे वैकुंठगामी हुए।
शंकरदेव के वैष्णव संप्रदाय का मत एक शरण है। इस धर्म में मूर्तिपूजा की प्रधानता नहीं है। धार्मिक उत्सवों के समय केवल एक पवित्र ग्रंथ चौकी पर रख दिया जाता है, इसे ही नैवेद्य तथा भक्ति निवेदित की जाती है। इस संप्रदाय में दीक्षा की व्यवस्था नहीं है।
भक्त कवी नरसी महेता
नरसी का मूल नाम नरसिंह मेहता था। उन्होंने गुजरात में वैष्णव पंथ को लोकप्रिय बनाया।
गुजराती साहित्य के आदि कवि संत नरसी मेहता का जन्म 1414 ई. में भावनगर (सौराष्ट्र) के निकट, तलाजा ग्राम में एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था। इसलिए अपने चचेरे भाई के साथ रहते थे। अधिकतर संतों की मंडलियों के साथ घूमा करते थे और 15-16 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। कोई काम न करने पर भाभी उन पर बहुत कटाक्ष करती थी। एक दिन उसकी फटकार से व्यथित नरसिंह गोपेश्वर के शिव मंदिर में जाकर तपस्या करने लगे। मान्यता है कि सात दिन के बाद उन्हें शिव के दर्शन हुए और उन्होंने कृष्णभक्ति और रासलीला के दर्शनों का वरदान मांगा। इस पर द्वारका जाकर रासलीला के दर्शन हो गए। अब नरसिंह का जीवन पूरी तरह से बदल गया। भाई का घर छोड़कर वे जूनागढ़ में अलग रहने लगे। उनका निवास स्थान आज भी ‘नरसिंह मेहता का चौरा’ के नाम से प्रसिद्ध है। वे हर समय कृष्णभक्ति में तल्लीन रहते थे। उनके लिए सब बराबर थे। छुआ-छूत वे नहीं मानते थे और हरिजनों की बस्ती में जाकर उनके साथ कीर्तन किया करते थे। इससे बिरादरी ने उनका बहिष्कार तक कर दिया, पर वे अपने मत डिगे नहीं।
पिता के श्राद्ध के समय और विवाहित पुत्री के ससुराल उसकी गर्भावस्था में सामग्री भेजते समय भी उन्हें दैवी सफलता मिली थी। जब उनके पुत्र का विवाह बड़े नगर के राजा के वजीर की पुत्री के साथ तय हो गया। तब भी नरसिंह मेहता ने द्वारका जाकर प्रभु को बारात में चलने का निमंत्रण दिया। प्रभु श्यामल शाह सेठ के रूप में बारात में गए और ‘निर्धन’ नरसिंह के बेटे की बारात के ठाठ देखकर लोग चकित रह गए। हरिजनों के साथ उनके संपर्क की बात सुनकर जब जूनागढ़ के राजा ने उनकी परीक्षा लेनी चाही तो कीर्तन में लीन मेहता के गले में अंतरिक्ष से फूलों की माला पड़ गई थी। निर्धनता के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन में पत्नी और पुत्र की मृत्यु का वियोग भी झेलना पड़ा था। पर उन्होंने अपने योगक्षेम का पूरा भार अपने इष्ट श्रीकृष्ण पर डाल दिया था। जिस नागर समाज ने उन्हें बहिष्कृत किया था अंत में उसी ने उन्हें अपना रत्न माना और आज भी गुजरात में उनकी वह मान्यता है।
कबीर
बनारस के पास पैदा हुए, उन्होंने एक सामान्य गृहस्थ के जीवन का नेतृत्व किया। रामानंद के एक शिष्य, उनका मिशन प्रेम का धर्म प्रचार करना था जो सभी जातियों और पंथों को एकजुट करेगा। उन्होंने भगवान की एकता पर जोर दिया, जिसे वे कई नामों से पुकारते हैं, जैसे कि राम, हरि, अल्लाह, आदि। उन्होंने हिंदू और मुस्लिम रिवाजों का जोरदार खंडन किया।
उन्होंने जाति व्यवस्था का दृढ़ता से खंडन किया, विशेषकर अस्पृश्यता की प्रथा। हालांकि, वह एक समाज सुधारक नहीं थे, उनका जोर एक सच्चे गुरु के मार्गदर्शन में व्यक्ति का सुधार था।
उनके दोहे और सखियाँ (कविताएँ) बीजक में मिलती हैं। कबीर की मृत्यु के बाद, उनके मुस्लिम शिष्यों ने मगहर में खुद को संगठित किया, और हिंदू शिष्यों को सूरत गोपाल द्वारा एक आदेश में, बनारस में उनके केंद्र के साथ संगठित किया गया।
दादू दयाल
अन्य निर्गुण संत दादू दयाल थे, जिन्होंने ब्रह्म सम्प्रदाय या परब्रह्म सम्प्रदाय की स्थापना की, मलूकदास कबीर, सुंदरदास और धरणीदास के अनुयायी थे।
नामदेव
संत नामदेव बचपन से ही सरल स्वभाव के थे। वे बड़े ही दयालु प्रवृति के थे। एक दिन उनकी माँ ने कहा – बेटा दवा बनानी है, थोड़ी-सी ढाक की छाल तो ले आते। नामदेव चले गए और कुछ समय बाद ढाक की छाल लेकर लौटे। नामदेव की माँ ने जब नामदेव को देखा तो पाया कि उनके पैर से खून बह रहा है। माँ ने जोर से चिल्लाकर पूछा – क्यों रे नामदेव, यह पैर से खून क्यों बह रहा है?
नामदेव चुप रहे। माँ ने फिर डाटकर पूछा – तू बोलता क्यूँ नहीं है? किसी ने मारा क्या?
“नहीं माँ, तुमने ढाक की छाल मंगायी न। मैंने जब पेड़ की छाल काटी तो मुझे लगा कि यह पेड़ तो बोलता नहीं है, देखें इसकी छाल निकालने पर इसे कैसा लगता होगा। इसलिये मैंने अपनी टांग छील डाली।”
सुनकर माँ का ह्रदय उमड़ आया और उन्होंने बालक नामदेव को सीने से लगा लिया.
एक बार की बात है। संत नामदेव जी भोजन कर रहे थे। तभी एक कुत्ता आया और उनकी थाली से रोटी लेकर भाग गया। नामदेव जी उस कुत्ते के पीछे – पीछे घी का कटोरा लेकर भाग पड़े। भागते-भागते वह कह रहे थे, “ भगवान, रुखी रोटी कैसे खाओगे, साथ में घी भी ले लो।” संत नामदेव के चरम भावावास्था को इस छोटे से दृष्टांत से समझा जा सकता है। ऐसे थे संत नामदेव जिनका नाम आज भी पूरे महाराष्ट्र में श्रद्धा के साथ लिया जाता है।
एकनाथ
संत एकनाथ महाराष्ट्र के विख्यात संत थे। वह स्वभाव से अत्यंत सरल और परोपकारी थे। एक दिन उनके मन में विचार आया कि प्रयाग पहुंचकर त्रिवेणी में स्नान करें और फिर त्रिवेणी से पवित्र जल भरकर रामेश्वरम में चढ़ाएं। उन्होंने अन्य संतों के समक्ष अपनी यह इच्छा व्यक्त की। सभी ने हर्ष जताते हुए सामूहिक यात्रा का निर्णय लिया। एकनाथ सभी संतों के साथ प्रयाग पहुंचे। सभी ने त्रिवेणी में स्नान किया। तत्पश्चात अपनी-अपनी कांवड़ में त्रिवेणी का पवित्र जल भर लिया। पूजा-पाठ से निवृत्त हो सबने भोजन किया, फिर रामेश्वरम की यात्रा पर निकल पड़े।
संतों का यह समूह यात्रा के मध्य में ही था कि मार्ग में एक गधा दिखाई दिया। वह प्यास से तड़प रहा था और चल भी नहीं पा रहा था। सभी संतों के मन में दया उपजी, किंतु उनके कांवड़ का जल तो रामेश्वरम के निमित्त था इसलिए सबने मन को कड़ा कर लिया। किंतु एकनाथ से रहा नहीं गया। उन्होंने तत्काल अपनी कांवड़ से पानी निकाल कर गधे को पिला दिया। प्यास बुझने के बाद गधे को मानो नवजीवन प्राप्त हो गया। वह उठकर सामने घास चरने लगा। संतों ने एकनाथ से कहा, ‘आप तो रामेश्वरम जाकर तीर्थ जल चढ़ाने से वंचित हो गए।
एकनाथ बोले, ‘ईश्वर तो सभी जीवों में व्याप्त है। मैंने अपनी कांवड़ से एक प्यासे जीव को पानी पिलाकर उसकी प्राण की रक्षा की। इसी से मुझे रामेश्वरम जाने का पुण्य मिल गया।’ वस्तुत: धार्मिक विधि-विधानों के पालन से बढ़कर मानवीयता का पालन है, जिसके निर्वाह पर ही सच्चा पुण्य प्राप्त होता है। सभी धर्मग्रंथों में परोपकार को श्रेष्ठ धर्म माना गया है। सही मायने में परोपकार से ही पुण्य फलित होता है। ईश्वर की सच्ची उपासना भी यही है। यही बात संत एकनाथ ने अपने आचरण से साबित किया। सारे संत उनकी बात सुन उनके सामने नतमस्तक हो गए।
तुकाराम
भक्ति संत तुकाराम वारकरी संप्रदाय के संत और कवि थे. उन्होंने अपने भक्ति गीत (अभंग) और कीर्तन के जरिए बड़े पैमाने पर लोगों को जागृत किया. श्रीसंत तुकाराम ने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव डाली थी.
संत तुकाराम के जन्मस्थल देहू में उनके निधन के बाद एक शिला मंदिर बनाया गया था लेकिन इसे औपचारिक तौर पर मंदिर के रूप में विकसित नहीं किया गया था.संत तुकाराम के जन्मस्थल देहू में उनके निधन के बाद एक शिला मंदिर बनाया गया था लेकिन इसे औपचारिक तौर पर मंदिर के रूप में विकसित नहीं किया गया था.
संत तुकाराम विट्ठल यानि भगवान विष्णु के परम भक्त थे. वैष्णव धर्म में उनकी गहरी आस्था थी. उन्होंने अपना ज्यादातर जीवन भक्तिपदों की रचना और कीर्तन गाने में लगाया. संत तुकाराम विट्ठल यानि भगवान विष्णु के परम भक्त थे. वैष्णव धर्म में उनकी गहरी आस्था थी. उन्होंने अपना ज्यादातर जीवन भक्तिपदों की रचना और कीर्तन गाने में लगाया.
संत तुकाराम समाज में व्याप्त बुराइयों और सामाजिक व्यवस्था की खामियों पर अपने भक्ति पदों के जरिए निशाना साधते थे और इसके लिए उन्हें कभी कभार विरोध भी झेलना पड़ा. संत तुकाराम समाज में व्याप्त बुराइयों और सामाजिक व्यवस्था की खामियों पर अपने भक्ति पदों के जरिए निशाना साधते थे और इसके लिए उन्हें कभी कभार विरोध भी झेलना पड़ा.
रामदास
मां की एक बात से नारायण से संत बने थे स्वामी रामदास-
स्वामी रामदास या समर्थ रामदास एक शरारती बालक से संत कैसे बने इसकी एक रोचक कहानी है। स्वामी रामदास का जन्म 1608 में आज के दिन महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के जांब नामक स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। स्वामी रामदास का बचपन का नाम नारायण था। वह बचपन में बहुत शरारती किस्म के बालक थे। गांव के लोग उनके शरारत की शिकायतें लेकर उनके घर पहुंचते रहते थे। बताते हैं कि एक दिन उनकी मां ने कहा कि नाराणय तुम पूरा दिन शरारत करते हो जबकि तुम्हारे बड़े भाई घर परिवार की चिंता करते हैं। तुम्हें किसी की परवाह नहीं रहती। माता की यह बात नारायण के दिल पर लग गई और वह घर के एक कमरे में ध्यान लगाकर बैठ गए। पूरे दिन जब वह अपनी को दिखाई नहीं दिए तो शाम को उनकी खोज की जाने लगी। तभी नारायण अपनी मां को एक कमरे में ध्यानमग्न मिले। इस पर उनकी मां ने पूछा कि यह क्या कर रहे हो तो उन्होंने जवाब दिया कि मैं पूरी दुनिया की चिंता कर रहा हूं।
इस घटना से ही उनका जीवन बदल गया और उन्होंने सांसारिक दुनिया से त्याग ले लिया। छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु रहे रामदास ने पूरे देश का पैदल चलकर भ्रमण किया। और जगह-जगह पर युवाओं को हनुमान जी की पूजा अराधना के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कई स्थानों पर मठ और हनुमान मूर्ति की स्थापना कराई। उन्होंने सुगमोपाय नाम का एक ग्रंथ भी लिखा।
विवाह मंडप से उठकर जंगल चले गए
स्वामी रामदास के जीवन की एक घटना यह भी बताई जा रही है कि 12 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह हो रहा था लेकिन जैसे ही पंडित ने सावधान मंगल बोला वैसे ही वह मंडप छोड़कर टाकली नामक एकांत स्थान पर चले गए। यहां वह 12 साल तक भगवान राम की तपस्या में लीन रहे। इसी कारण उनका नाम स्वामी रामदास पड़ा। टाकली महाराष्ट्र के नासिक जिले में है। यहां नंदिनी और गोदावरी नदियों का संगम भी है।
संत ज्ञानेश्वर
संत ज्ञानेश्वर का जन्म सन १२७५ ईसवी में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में पैठण के पास गोदावरी नदी के किनारे आपेगाँव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इनके पिता का नाम विट्ठल पंत एवं माता का नाम रुक्मिणी बाई था। इनके पिता उच्च कोटि के मुमुक्षु तथा भगवान् विट्ठलनाथ के अनन्य उपासक थे। विवाह के उपरांत उन्होंने संन्यास दीक्षा ग्रहण की थी, किंतु उन्हें अपने गुरुदेव की आज्ञा से फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना पड़ा। इस अवस्था में उन्हें निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव तथा सोपान नामक तीन पुत्र एवं मुक्ताबाई नाम की एक कन्या हुई। संन्यास-दीक्षा-ग्रहण के उपरांत इन संतानों का जन्म होने के कारण इन्हें 'संन्यासी की संतान' यह अपमानजनक संबोधन निरंतर सहना पड़ता था। विट्ठल पंत को तो उस समय के समाज द्वारा दी गई आज्ञा के अनुसार देहत्याग तक करना पड़ा था।
पिता की छत्रछाया से वंचित से अनाथ भाई-बहन जनापवाद के कठोर आघात सहते हुए 'शुद्धिपत्र' की प्राप्ति के लिये उस समय के सुप्रसिद्ध धर्मक्षेत्र पैठन में जा पहुँचे। किम्वदंती प्रसिद्ध है : ज्ञानदेव ने यहाँ उनका उपहास उड़ा रहे ब्राह्मणों के समक्ष भैंसे के मुख से वेदोच्चारण कराया था। गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित इनके जीवन-परिचय के अनुसार - ".....1400 वर्ष के तपस्वी चांगदेव के स्वागत के लिए जाना था, उस समय ये दीवार थी,उसी दीवार को उक्त संत के पास चला कर ले गये। " मराठी गीत में यह घटना यों गाई जाती रही है-"चालविली जड़ भिंती। हरविली चांगयाची भ्रान्ति।" इनके इस अलौकिक चमत्कार से प्रभावित हो पैठन (पैठण) के प्रमुख विद्वानों ने उन चारों भाई बहनों को शक संवत १२०९ (सन् १२८७) में 'शुद्धिपत्र' प्रदान कर दिया।
उक्त शुद्धिपत्र को लेकर ये चारों प्रवरा नदी के किनारे बसे नेवासे ग्राम में पहुँचे। ज्ञानदेव के ज्येष्ठ भ्राता निवृत्तिनाथ के नाथ संप्रदाय के गहनीनाथ से उपदेश मिला था। इन्होंने उस आध्यात्मिक धरोहर को ज्ञानदेव के द्वारा अपनी छोटी बहन मुक्ताबाई तक यथावत् पहुँचा दिया। इस प्रकार परमार्थमार्ग में कृतार्थ एवं सामाजिक दृष्टि से पुनीत ज्ञानदेव ने आबालवृद्धों को अध्यात्म का सरल परिचय प्राप्त कराने के उद्देश्य से श्रीमद्भगवद्गीता पर मराठी में टीका लिखी। इसी का नाम है भावार्थदीपिका अथवा ज्ञानेश्वरी। इस ग्रंथ की पूर्णता शक संवत १२१२ नेवासे गाँव के महालय देवी के मंदिर में हुई। कुछ विद्वानों का अभिमत है- इन्होंने अभंग-वृत्त की एक मराठी टीका योगवासिष्ठ पर भी लिखी थी, पर दुर्भाग्य से वह अप्राप्य है।
उन दिनों के लगभग सारे धर्मग्रंथ संस्कृत में होते थे और आम जनता बहुत संस्कृत नहीं जानती थी, अस्तु तेजस्वी बालक ज्ञानेश्वर ने केवल १५ वर्ष की उम्र में ही गीता पर मराठी की बोलचाल भाषा में 'ज्ञानेश्वरी'नामक गीता-भाष्य की रचना करके मराठी जनता की उनकी अपनी भाषा में उपदेश कर जैसे ज्ञान की झोली ही खोल दी। स्वयं टीकाकार ने लिखा है- "अब यदि मैं गीता का ठीक-ठीक विवेचन मराठी (देशी) भाषा में करूं तो इस में आश्चर्य का क्या कारण है ...गुरु-कृपा से क्या कुछ सम्भव नहीं ?"
इस ग्रंथ की समाप्ति के उपरांत ज्ञानेश्वर ने अपने राजनीतिक सिद्धांतों की स्वतंत्र विवेचना करनेवाले 'अमृतानुभव' नामक दूसरे ग्रंथ का निर्माण किया। इस ग्रंथ के पूर्ण होने के बाद ये चारों भाई-बहन पुणे के निकटवर्ती ग्राम आलंदी आ पहुँचे। यहाँ से इन्होंने योगिराज चांगदेव को ६५ ओवियों (पदों) में जो पत्र लिखा वह महाराष्ट्र में 'चांगदेव पासष्ठी' नाम से विख्यात है।
ज्ञानदेव जब तीर्थयात्रा के उद्देश्य से आलंदी से चले उस समय इनके साथ इनके भाई, बहन, दादी, तथा विसोवा खेचर, गोरा कुम्हार आदि अनेक समकालीन संत भी थे। विशेषतया नामदेव तथा ज्ञानदेव के आपसी संबंध इतने स्नेहपूर्ण थे कि ऐसा लगता था मानो इस तीर्थयात्रा के बहाने ज्ञान और कर्म दोनों तपस्वियों के भेस में साकार रूप धारण कर एकरूप हो गए हों। तीर्थयात्रा से लौटते हुए ज्ञानदेव पंढरपुर मार्ग से आलंदी आ पहुँचे। विद्वानों का अनुमान हैं कि ज्ञानदेव ने इसी काल में अपने 'अभंगों' की रचना की होगी।
बालक से लेकर वृद्धों तक को भक्तिमार्ग का परिचय करा कर भागवत-धर्म की पुन:स्थापना करने बाद ज्ञानदेव ने आलंदी ग्राम में अत्यंत युवा होते हुए भी जीवित समाधि लेने का निश्चय किया। मात्र २१ वर्ष तीन माह और पांच दिन की अल्पायु में वह इस नश्वर संसार का परित्याग कर समाधिस्थ हो गये। ज्ञानदेव के समाधिग्रहण का वृत्तांत संत नामदेव ने अत्यंत हृदयस्पर्शी शब्दों में लिखा है। अपने गुरु निवृत्तिनाथ को अंतिम वंदन कर ज्ञानदेव स्थितप्रज्ञ के समान समाधिमंदिर में जा बैठे। तदुपरांत स्वयं गुरु ने समाधिमंदिर की द्वारशिला बंद कर दी। ज्ञानेश्वर, जिन्हें ध्यानेश्वर भी कहा जाता है, ने यह जीवित समाधि ग्राम आलिंदी संवत में शके १२१७ (वि. संवत १३५३ (सन् १२९६) की मार्गशीर्ष वदी (कृष्ण) त्रियोदशी को ली, जो पुणे के लगभग १४ किलोमीटर दूर अब एक प्रसिद्ध तीर्थ बन गया है।
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