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Economic History of India

 

 

भारत का आर्थिक इतिहास 


 विकास सिंधु घाटी सभ्यता से आरम्भ माना जाता है। सिंधु घाटी सभ्यता की अर्थव्यवस्था मुख्यतः व्यापार पर आधारित प्रतीत होती है जो यातायात में प्रगति के आधार पर समझी जा सकती है। लगभग 600 ई॰पू॰ महाजनपदों में विशेष रूप से चिह्नित सिक्कों को ढ़ालना आरम्भ कर दिया था। इस समय को गहन व्यापारिक गतिविधि एवं नगरीय विकास के रूप में चिह्नित किया जाता है। 300 ई॰पू॰ से मौर्य काल ने भारतीय उपमहाद्वीप का एकीकरण किया। राजनीतिक एकीकरण और सैन्य सुरक्षा ने कृषि उत्पादकता में वृद्धि के साथ, व्यापार एवं वाणिज्य से सामान्य आर्थिक प्रणाली को बढ़ाव मिल।

 

अगले 1500 वर्षों में भारत में राष्ट्रकूट, होयसल और पश्चिमी गंग जैसे प्रतिष्ठित सभ्यताओं का विकास हुआ। इस अवधि के दौरान भारत को प्राचीन एवं 17वीं सदी तक के मध्ययुगीन विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में आंकलित किया जाता है। इसमें विश्व के की कुल सम्पति का एक तिहाई से एक चौथाई भाग मराठा साम्राज्य के पास था, इसमें यूरोपीय उपनिवेशवाद के दौरान तेजी से गिरावट आयी।

 

आर्थिक इतिहासकार अंगस मैडीसन की पुस्तक द वर्ल्ड इकॉनमी: ए मिलेनियल पर्स्पेक्टिव (विश्व अर्थव्यवस्था: एक हज़ार वर्ष का परिप्रेक्ष्य) के अनुसार भारत विश्व का सबसे धनी देश था और 17वीं सदी तक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यस्था था।

 

भारत में इसके स्वतंत्र इतिहास में केंद्रीय नियोजन का अनुसरण किया गया है जिसमें सार्वजनिक स्वामित्व, विनियमन, लाल फीताशाही और व्यापार अवरोध विस्तृत रूप से शामिल है। 1991 के आर्थिक संकट के बाद केन्द्र सरकार ने आर्थिक उदारीकरण की नीति आरम्भ कर दी। भारत आर्थिक पूंजीवाद को बढ़ावा देने लग गया और विश्व की तेजी से बढ़ती आर्थिक अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनकर उभरा

 

सिंधु घाटी सभ्यता

सिंधु घाटी सभ्यता विश्व का सबसे पहला ज्ञात स्थायी और मुख्य रूप से नगरीय आबादी का उदाहरण है। इसका विकास 3500 ई॰पू॰ से 1800 ई॰पू॰ तक हुआ जो उन्नत और संपन्न आर्थिक प्रणाली की ओर बढ़ा। यहाँ के नागरिकों ने कृषि, पालतू जानवार, तांबे, कांसा एवं टिन से तिक्ष्ण उपकरणों और शस्त्रों का निर्माण तथा अन्य नगरों के साथ इसका विक्रय करना आरम्भ किया।[6] घाटी के बड़े नगरों हड़प्पा, लोथल, मोहन जोदड़ो और राखीगढ़ी में सड़कें, अभिविन्यास, जल निकासी प्रणाली और जलापूर्ति के साक्ष्य, उनकी नगरीय नियोजन के ज्ञान को उद्धघाटित करता है।

 

प्राचीन और मध्ययुगीन विशेषताएँ

यद्यपि प्राचीन भारत में महत्त्वपूर्ण नगरीय जनसंख्या पायी जाती है लेकिन भारत की अधिकत्तर जनसंख्याँ गाँवों में निवास करती थी जिसकी अर्थव्यवस्था विस्तृत रूप से पृथक और आत्मनिर्भर रही है। आबादी का मुख्य व्यवसाय कृषि था और कपड़ा, खाद्य प्रसंस्करण तथा शिल्प जैसे हाथ आधारित उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराने के अलावा खाद्य आवश्यकताएँ भी कृषि से पूर्ण होती थी। कृषकों के अलावा अन्य वर्गों के लोग नाई, बढ़ैइ, चिकित्सक (आयुर्वेद चिकित्सक अथवा वैद्य), सुनार, बुनकर आदि कार्य करते थे।

धर्म

आर्थिक गतिविधियों को रूप देने में मुख्यतः हिन्दू धर्म और जैन धर्म प्रभावशाली भुमिका निभाते हैं।

 

तीर्थस्थल कस्बे जैसे इलाहाबाद, बनारस, नासिक और पुरी जो मुख्यतः नदियों के तटों पर स्थित हैं तथा व्यापार एवं वाणिज्य के केन्द्र के रूप में विकसित हुये। धार्मिक उत्सव, त्योहार और तीर्थ यात्रा पर जाने की प्रथा ने तीर्थ अर्थव्यवस्था को उत्कर्ष पर पहुँचाया।

 

जैन धर्म में अर्थव्यवस्था को तीर्थकर महावीर और उनके सिद्धान्तों एवं दर्शन ने प्रभावित किया। इसके पीछे का इतिहास उनके दर्शन से समझाया जाता है। वो जैन धर्म के फैलाने वाले अन्तिम और 24वें तीर्थंकर थे। आर्थिक प्रसंग में उन्होंने 'अनेकांत (गैर-निरेपक्षतावाद) के सिद्धान्त से समझाया।

 

 

पारिवारिक व्यवसाय

Fairytale warning.png यह अनुभाग खाली है, अर्थात पर्याप्त रूप से विस्तृत नहीं है या अधूरा है। आपकी सहायता का स्वागत है!

 

सन् १७५० से १९१३ के बीच विश्व के प्रमुख देशों का उत्पादन प्रतिशत1750 1800        1830 1860          1880 1900 1913

यूरोप

यूरोप      23.1 28.0 34.1 53.6 62.0 63.0 57.8

यूके 1.9   4.3   9.5   19.9 22.9 18.5 13.6

जर्मनी    2.9   3.5   3.5   4.9   8.5   13.2 14.8

फ़्रांस       4.0   4.2   5.2   7.9   7.8   6.8   6.1

इटली      2.4   2.5   2.3   2.5   2.5   2.5   2.4

रूस 5.0   5.6   5.6   7.0   7.6   8.8   8.2

नव-यूरोप

नव-यूरोप      0.1   0.8   2.4   7.2   14.7 23.6 32.0

संयुक्त राज्य अमेरिका 0.1   0.8   2.4   7.2   14.7 23.6 32.0

उष्णकटिबंधीय

उष्णकटिबंधीय     76.8 71.2 63.3 39.2 23.3 13.4 10.2

जापान   3.8   3.5   2.8   2.6   2.4   2.4   2.7

चीन        32.8 33.3 29.8 19.7 12.5 6.2   3.6

भारत      24.5 19.7 17.6 8.6   2.8   1.7   1.4

 

भारत की अर्थव्यवस्था को मोटे तौर पर तीन भागों मे बांटा जा सकता है:

 

ब्रिटिश काल से पहले

ब्रिटिश काल में

आजादी के बाद

 

ब्रिटिश काल के पूर्व भारत में उद्योग-धंधे

वस्त्र उद्योग

वस्त्र उद्योग में सूती, ऊनी और सिल्क प्रमुख थे। सूती वस्त्र उद्योग बड़ा व्यापक था। इस उद्योग में बहुत से लोग लगे हुए थे। कपास का धुनना और कातना आमतौर पर घरों में ही होता था, परन्तु किन्हीं क्षेत्रों में इस कार्य में विशिष्टता प्राप्त हो गई थी। बारीक से बारीक सूत काता जाता था। थेवेनॉट को अहमदाबाद के समीप कारीगरों का एक समूह मिला जिसका कोई निश्चित घर था और जो एक गाँव से दूसरे गाँव को काम की तलाश में जाता था। यह बिनौलों से कपड़ा निकालने, रूई को साफ करने और धुनने का कार्य करते थे। भारत के ग्रामों मे ही नहीं, बड़े बड़े नगरों में जुलाहे परिवार रहते थे जो वस्त्रनिर्माण का कार्य करते थे। तैयार कपड़े को धोने का कार्य धोबी करते थे जो वस्त्र-निर्माण का कार्य करते थे। तैयार कपड़े को धोने का कार्य धोबी करते थे। तैयार कपड़े को धोने के लिए पहले गर्म पानी में औटाया जाता था। इसके पश्चात उसे धोया और धूप में सुखाया जाता था। मोटे कपड़े को धोते समय धोबी उसे पत्थर पर पीटते थे। बारीक कपड़ों को पीटा नहीं जाता था। उसे धूप में सुखाने के लिये फैला दिया जाता था। कपड़ा धोने के लिये विशेष प्रकार के पानी की आवश्यकता पड़ती थी। नर्मदा नदी का पानी कपड़े की धुलाई के लिये इस नदी के पानी में लाया जाता था। नर्मदा नदी के तट पर बसा भड़ौंच नगर कपड़े की धुलाई के लिए प्रसिद्ध था। इस प्रकार ढाका के समीपवर्ती क्षेत्रों में बहुत से धोबी रहते थे, क्योंकि यहाँ का पानी कपड़े धोने के बड़ा उपर्युक्त था। कपड़े को नील से डाई किया जाता था।

 

 

बंगाल का महीन मलमल (मस्लिन) पहनी हुई एक स्त्री (सन १७८९ में चित्रित)

भारतीय कपडें की विदेशी में बड़ी माँग थी। विश्व के लगभग हर भाग में भारत से कपड़ा जाता था। ढाका की मलमल संसार-प्रसिद्ध थी। इसका धागा बहुत बारीक होता था जो चर्खे पर हाथ से काता जाता था। मलमल का थान एक अँगूठी के बीच से निकल सकता था। यूरोपीय यात्रियों ने इसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है। उच्च कोटि सी मलमल विभिन्न नामों के पुकारी जाती थी, जैसे मलमल खास (बादशाह की मलमल), सरकारें आली (नवाब की मलमल), आबे खाँ (बहता हुआ पानी) इत्यादि। भड़ौच में निर्मित `बफ्ता' वस्त्र की सारे देश और विदेशों में बड़ी मांग थी। यात्री टेवरनियर ने `बफ्ता' विभिन्न रंगों में रंगा जाता था। रँगने के लिये इसे आगरा और अहमदाबाद लाया जाता था। `बफ्ता' की लम्बाई १५ गज और चौड़ाई २५ इंच होती थी। अधिक चौड़ाई का `बफ्ता' ३६ इंच चौड़ा होता था। सफेद कपड़े का जिसे अँग्रेज व्यापारी `केलिको' कहते थे, बड़ी मात्रा में निर्माण होता था। इसके अतिरिक्त बढ़िया और कीमती कपड़े का भी निर्माण होता था। इसमें सोने और चाँदी के तार पड़े होते थे। सूरत, आगरा, बनारस और अहमदाबाद इस प्रकार के वस्त्र निर्माण के प्रमुख केन्द्र थे।

 

प्रिण्टेड कपड़े की भी बड़ी माँग थी। कपड़े पर प्रिन्ट या तो हाथ से ब्रुश की सहायता से किया जाता था, या लकड़ी पर बने छापे द्वारा, जिस पर ब्लाक बना होता था। कपड़ा जिस पर ब्रुश से प्रिन्ट किया जाता था, `कलमदार' या `कलमकार' कपड़ा कहलाता था। दूसरा तरीका, लकड़ी पर खोदकर छापा बना लिया जाता था, उसे रँग में भिगोकर कपड़े पर लगा दिया जाता था। इंगलिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापारी इस कपड़े को `प्रिन्ट' या `चिन्ट' के नाम से पुकारते थे लकड़ी के छापे की अपेक्षा हाथ से ब्रुश की सहायता से प्रिन्ट करना कठिन था।

 

बच्चे आमतौर पर बड़ों की `प्रिन्ट' के कार्य में सहायता करते थे। १६७० ई। में फायर कोरोमण्डल तट की वर्णन करते हुए लिखा है-- "पेंटिंग का काम बड़ो के साथ-साथ छोटे बच्चों द्वारा भी किया जाता है। वे कपड़े को जमीन पर फैलाते हैं और अनेक प्रकार से बड़ों की इस कार्य में सहायता करते हैं। "पेंटिंग का कार्य आमतौर पर लकड़ी की बनी मेज पर या तख्ते पर होता था। वर्कशाप अधिकतर खुली जगह में होती थीं और ऊपर शेड पड़ा होता था। प्रिन्टेड क्लाथ के लिए कारोमण्डल तट बड़ा प्रसिद्ध था। यहाँ कपड़ा अन्य स्थानों की अपेक्षा सस्ता, अच्छा और चमकदार होता था।

 

ऊनी वस्त्र उद्योग के केन्द्र कश्मीर, काबूल, आगरा, लाहौर और पटना थे। कश्मीर के शाल, कम्बल, पट्टू और पश्मीना प्रसिद्ध थे। फतेहपुर सीकरी में ऊनी दरियाँ बनती थी। ऊनी वस्त्रों का प्रयोग सामान्यत: धनी करता था। कीमत अधिक होने के कारण ऊनी वस्त्र का प्रयोग जन-साधारण की सामार्थ्य से बाहर था। जन-साधारण के लिये सस्ते और खुरदरे कम्बलों का निर्माण किया जाता था। इंगलिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इंगलैड में बनी ऊनी कपड़े के लिये भारत में बाजार बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु उसे इसमें अधिक सफलता नहीं मिली।

 

सिल्क उद्योग के लिए बनारस, अहमदाबाद और मुर्शिदाबाद प्रमुख थे। बंगाल से न केवल बड़ी मात्रा में सिल्क का निर्यात होता था, बल्कि सिल्क का कपड़ा भी बनता था। बनारस सिल्क की साड़ी और सिल्क पर जरी के कार्य के लिये प्रसिद्ध था। सूरत में सिल्क की दरियां बनती थी। सिल्क के कपड़े पर जरी का काम भी सुरत में होता था।

 

देश-विदेश में भारतीय कपड़े की बड़ी माँग थी। भारतीय वस्त्र उद्योग संसार के विभिन्न भागों की कपड़े की माँग की पूर्ति करता था। यूरोपीय व्यापारियों के कारण भारतीय कपड़े के निर्यात को बड़ा बढ़ावा मिला। यूरोप भारतीय कपड़े की खपत का प्रमुख केन्द्र बन गया। कपड़े की माँग की पूर्ति स्थानीय बजाज करते थे। वे बड़े व्यापारियों से कपड़ा खरीदते थे। कपड़े को छोटे विक्रेता फेरी वाले थे जो न केवल नगर की गलियों में कपड़ा बेचते थे, बल्कि गाँव में भी कपड़े बेचते थे। गाँव में साप्ताहिक हाट या पेंठ लगती थी जहाँ बजाज कपड़ा बेचते थे। स्थिति को देखते हुए वे आम तौर पर नगद पैसा लेने की माँग नहीं करते थे। और खरीदार किसान फसल के समय उधार धन चुकाता था। कभी-कभी जुलाहे अपना कपड़ा लाकर बाजार में बेचते थे। कासिम बाजार के आस-पास रहने वाले जुलाहे अपना कपड़ा बेचने के लिए नगर के बाजार में लाते थे।

 

आभू षण उद्योग

देश में आभूषण पहनने का आम रिवाज था। आजकल की तरह आभूषण पहनना सामाजिक प्रतिष्ठा का चिन्ह था। बादशाह, शाही परिवार एवं सामंत वर्ग रत्नजटिल आभूषणों का प्रयोग करता था। भारतीय नारी की आभूषण-प्रियता संसारप्रसिद्ध है। आभूषणों के निर्माण में निपुण कारीगर लगे हुए थे। आभूषण उद्योग देशव्यापी था। नारी के शरीर के विभिन्न अंगों के लिये अलग-अलग आभूषण थे। मुगलकाल में विभिन्न अंगों में पहनने के लिये निम्नलिखित आभूषणों का प्रचलन था-

 

सीसफूल सिर का आभूषण था। माथे के आभूषण था। माथे के आभूषण टीका या माँगटीका, झूमर और बिन्दी थे। माथे पर बिन्दी लगाने का आम रिवाज था और बिन्दी में मोती जड़े होते थे। आभूषण थे। गले के आभूषण हार, चन्द्रहार, माला मोहनमाला, माणिक्य माला, चम्पाकली, हँसली, दुलारी, तिलारी, चौसर, पँचलरा और सतलरा थे। दुलारी दो लड़ों, तिलारी तीन लड़ों, चौसर चार लड़ों, पँचलरा पाँच लड़ों और सतलरा सात लड़ों का आभूषण था। कमर का आभूषण तगड़ी या करधनी था। इसमें घुँघरू लगे होते थे जो चलते समय बजते थे। अँगूठी या मूँदरी अँगूली का आभूषण था जिसका बड़ा प्रचलन था। आरसी अँगूठे का आभूषण था, इसमें एक दर्पण लगा होता था। जिसमें मुँह देखा जा सकता था। पौंची, कंगन, कड़ा, चूड़ी और दस्तबन्द कलाई के आभूषण थे। भुजा के आभूँषण बाजूबन्द या भुजबन्द थे। बाजुबन्द का संस्कृत नाम भुजबन्द था। पैरों के आभूषण पाजेब, कड़ा थे। पैरों की अँगुलियों में बिछुए पहने जाते थे। पैरों के आभूषण आमतौर पर चाँदी के बने होते थे, जबकि दूसरे आभूषण सोने के बनते थे। गरीब लोग चाँदी के आभूषण पहनते थे।

 

बहुमुल्य रत्नों का विदेशों से आयात भी होता था और दक्षिण भारत की खानों से भी हीरे निकाले जाते थे। टेवरनियर हीरों का एक प्रसिद्ध व्यापारी था। दक्षिण भारत में हीरों की एक खान का वर्णन करते हुए टेवरनियर लिखता है कि इसमें हजारों की संख्या में मजदूर काम करते थे। भूमि के एक बड़े प्लाट को खोदा जाता था। आदमी इसे खोदते थे, स्त्रियांॅ और बच्चे उस मिट्टी को एक स्थान पर ले जाते थे। जो चारों ओर दीवारों से घिरा होता था। मिट्टी के घड़ों में पानी लाकर उस मिट्टी को धोया जाता था। ऊपरी मिट्टी दीवार में छेदों के द्वारा बहा दी जाती थी और रेत बच रहता था। इस प्रकार जो तत्त्व बचता था, उसे लकड़ी डण्डों से पीटा जाता था और अंत से हाथ से हीरे चुन लिये जाते थे।

 

मजदूरों को बहुत कम मजदूरी मिलती थी। टेवरनियर के अनुसार मजदूरी ३ पेगोडा वार्षिक थी। हीरे चोरी न हो जायें, इसके लिए ५० मजदूरों पर निगरानी रखने के लिए १२ से १५ तक चौकीदार होते थे। टेवरनियर एक घटना का वर्णन करता है जबकि एक मजदूर ने एक हीरे को अपनी आँखों के पलक के नीचे छुपा लिया था। लकड़ी का काम

 

जहाज, नावें, रथ और बैलगाड़ियाँ इत्यादि बनाने में लकड़ी का प्रयोग होता था। सूरत में पारसी लोग नावें और जहाज बनाने के कार्य में लगे हुए थे। मैसूर में सन्दल की लकड़ी पर सुन्दर कारीगरी का कार्य होता था। भवन-निर्माण में भी लकड़ी का प्रयोग होता था। माल ढोने में बैलगाड़ियों का प्रयोग होता था, इस कारण बड़ी संख्या में इनका निर्माण होता था। पालकी बनाने में भी लकड़ी का प्रयोग होता था। धनवान व्यक्ति और स्त्रियां पालकी में सवारी करते थे। नदियों में नावों द्वारा माल ले जाया जाता था। इससे प्रतीत होता है कि नावों का बड़ी संख्या में निर्माण होता था। फिंच ने आगरा से बंगाल तक १८० नावों के बेड़े के साथ यात्रा की थी। ये नावें छोटी और बड़ी दोनों प्रकार की थी। गंगा पर ४०० से ५०० टन क्षमता वाले नावें चलती थीं। सूरत, गोवा, बेसीन, ढाका, चटगाँव, मसुलीपट्टम, आगरा, लाहौर और इलाहाबाद इत्यादि में नावें और जहाज बनाये जाते थे। काश्मीर लकड़ी की सुन्दर डिजायनदार चीजें बनाने के लिए प्रसिद्ध था।

 

इमारती सामान एवं भवन-निर्माण

भवन निर्माण में ईंट, पत्थर, चूना, लकड़ी और मिट्टी का प्रयोग होता था। `आइने-अकबरी' में भवन निर्माण में काम आने वाली विभिन्न वस्तुओं के मूल्य दिये हुए है। आईन के अनुसार ईटें तीन प्रकार की होती थी--पकी हुई, अधपकी और कच्ची। इनका मूल्य क्रमश: ३० दाम, २४ दाम और १० दाम प्रति हजार था। लाल पत्थर का मूल्य ३ दाम प्रति मन था। कुशल कारीगर पत्थर को तराशनने का कार्य करते थे। साधारण जनता के मकान मिट्टी के बने होते थे और उन पर छप्पर पड़ा होता था। मिट्टी की बनी इन छोटी कोठरियों में परिवार के सब सदस्य रहते थे। इतना ही नहीं, उनके पशु गाय, बछड़ा भी उसी में रहते थे। परन्तु धनवान व्यक्ति शानदार मकानों में रहते थे। आगरा, दिल्ली और प्रान्तीय राजधानियों में अनेक विशाल भवन बनाये गये जिनका निर्माण कुशल कारीगरों ने किया और जिसके फलस्वरूप अनेक राजों, मजदूरों, पत्थरतराशों, बढ़ई एवं अन्य कारीगरों को रोजगार मिला।

 

मुगल शासक महान भवन-निर्माता थे। बाबर ने बहुत-सी इमारतें बनवायें, किन्तु उनमें से केवल दो, पानीपत का काबूल बाग और संभल की जामा मस्जिद आज भी मौजूद है। बाबर के शब्दों में - "मेरे आगरा, सीकरी, बयाना, धौलपुर, ग्वालियर तथा कोल के भवनों के निर्माण में १४९१ पत्थर काटने वाले रोजाना कार्य करते थे।"

 

हुमायूँ का जीवन संघर्षमय रहा, फिर भी उसने पंजाब के हिसार जिले में फतेहाबाद में एक सुन्दर मस्जिद बनवायी। शेरशाह के भवनों में उसका सहसराम का मकबरा और पुराने किले में बनी `किलाए कुहना मस्जिद' प्रसिद्ध हैं। इनमें जामा मस्जिद और बुलन्द दरवाजा बड़े प्रसिद्ध हैं। अन्य भवन `बीरबल का महल' सुनहला मकान या शाहजादी अम्बर का महल, तुर्की सुल्ताना का महल और दीवाने खास हैं। सिकन्दरा में अकबर का मकबरा भवन-निर्माण कला का अच्छा उदाहरण है। अकबर ने आगरा और लाहौर में किलों का निर्माण कराया। आगरा के किले में प्रमुख भवन दीवाने आम, दीवाने खास और जहाँगीरी महल है। जहाँगीर की रूची भवन-निर्माण की अपेक्षा चित्रकला की ओर अधिक थी, परन्तु उसकी कमी की पूर्ति उसकी प्रिय बेगम नूरजहाँ ने की। नूरजहाँ ने अपने पिता की स्मृति में `इत्तमाद्-उद्दौला' का मकबरा बनवाया। यह संगमरमर का बना है और देखने में बड़ा सुन्दर है। नूरजहाँ ने लाहौर के समीप शाहदरे में जहाँगीर का मकबरा बनवाया।

 

मुगल बादशाहों में शाहजहाँ सबसे महान भवन-निर्माता था। उसके प्रसिद्ध भवन दिल्ली का लाल किला, जामा मस्जिद और ताजमहल हैं। लाल किले में दीवाने खास सबसे अधिक सुन्दर और अलंकृत है। यहाँ एक खुदे लेख में इसकी सुन्दरता का वर्णन इन शब्दों में किया गया है--

 

गर फिरदौस बर रूये जमीं अस्त।

हमीं अस्तों हमीं अस्तों, हमीं अस्त॥

यानी, यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यही है, यही है और यही है। शाहजहाँ ने ताजमहल अपनी प्रिय बेगम अर्जमन्द बानू की स्मृति में बनवाया। ताजमहल को बनाने और इसका नक्शा तैयार करने के लिये देश-विदेश के कारीगरों को बुलाया गया। ताजमहल के कई नक्शे प्रस्तुत किये गये और बादशाह ने अंत में एक नक्शे पर अपनी स्वीकृति प्रदान की। पहले ताजमहल का छोटा-सा मॉडल लकड़ी का बनाया गया। जिसे देखकर कारीगरों ने ताज का निर्माण किया। ताजमहल उस्ताद ईसा की देखरेख में तैयार किया गया जिसे १००० रु मासिक वेतन मिलता था। इसके निर्माण पर ५० लाख रु। खर्च हुआ। औरंगजेब ने लाल किले में अपने प्रयोग के लिये मोती मस्जिद बनवायी और लाहौर में बादशाही मस्जिद का निर्माण कराया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल निर्माण कला का ह्रास हो गया।

 

चमड़ा उद्योग

चमड़ा जूते बनाने, घोड़ों की जीन, पानी भरने की मशक इत्यादि विभिन्न कार्यो में प्रयोग किया जाता था। दिल्ली चमड़ा उद्योग के लिये प्रसिद्ध था। चमड़ा पशुओं के खाल से प्राप्त किया जाता था। स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये यह उद्योग सारे देश में फैला हुआ था।

 

मिट्टी के बर्तन

प्राचीन काल से ही मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग होता आया है। कुम्हार मिट्टी के बर्तन, पानी पीने के लिये मटके और विभिन्न प्रकार के कलात्मक खिलौने बनाते थे। यह उद्योग सारे देश में फैला हुआ था। जयपुर, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, ग्वालियर इस उद्योग के मुख्य केन्द्र थे।

 

हाथीदाँत का काम

हाथी के दाँत की सुन्दर कलात्मक वस्तुएं बनायी जाती थीं, जैसे चूड़ियाँ, कंगन, शतरंज और शतरंज के मोहरे। विभिन्न प्रकार के खिलौने हाथीदाँत से बनाये जाते थे। दिल्ली और मुल्तान हाथी दाँत के काम के लिये प्रसिद्ध थे।

 

तेल और इत्र

तेल कोल्हू से पेर निकाला जाता था। किसानों के घरेलू उद्योग से निकल कर यह भी एक व्यावसायिक उद्योग बन गया था। तेली इस कार्य को करते थे। कोल्हू को चलाने में बैल का प्रयोग किया जाता था। तेल को बाजार में अथवा तेल व्यापारियों को बेच दिया जाता था। तेल सरसों, तिल, गोला आदि का निकाला जाता था। इत्र का भी निर्माण किया जाता था। बनारस, लाहौर और कैम्बे इत्र-निर्माण के केन्द्र थे।

 

चीनी-उद्योग

चीनी, गुड़, राब, गन्ने को कोल्हू से पेर कर बनायी जाती थी। गन्ने के रस को लोहे या मिट्टी के मटकों में भरकर आग पर गर्म किया जाता था। गन्ने की खोई गर्म करने के काम आती थी। इस प्रकार गुड़ और बूरे का निर्माण किया जाता था। आरम्भ में यह किसान परिवार का घरेलू उद्योग था। बाद में इस उद्योग ने विशिष्टता प्राप्त कर ली। देश में गुड़ और चीनी की बड़ी खपत थी। गन्ने की पैदावार उत्तर भारत के विस्तृत भू-भाग में होती थी। इस प्रकार यह उद्योग देशव्यापी था, फिर भी इस उद्योग के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, आगरा बयाना, पटना, बरार और लाहौर थे। अंग्रेज और डल व्यापारी भारत से चीनी का निर्यात करते थे।

 

धातु उद्योग

लोहा

लोहा विभिन्न कार्यो में प्रयुक्त होता था। लोहे का प्रयोग प्रमुख रूप से हथियार बनाने के लिये होता था। यह हथियार आक्रमण और सुरक्षात्मक दोनों प्रकार के होते थे। बन्दूक, तोप, तलवार, भाले, कवच लोहे के बनते थे। गाँव में लोहार होता था जो ग्रामवासियों की स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। खेती के औजार मुख्य रूप से लोहे से बने होते थे। किसानों के अतिरिक्त अन्य लोगों, जैसे लोहार, बढ़ई, राज, मजदूर, दर्जी, तेली, हलवाई, माली, कसाई, नाई को अपने कार्यों के लिये जिन औजारों की आवश्यकता होती थी, वे पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से लोहे के बने होते थे। घरेलू बर्तन जैसे कढ़ाई, करछरी, चिमटा और तथा इत्यादि लोहे के बने होते थे। घरेलू उपयोग में काम आने वाला चाकू लोहे का बना होता था। गोलकुण्डा में उच्चकोटि का लोहा और स्टील का निर्माण होता था। कालिंजर, ग्वालियर, कुमायूँ, सुकेत मण्डी (लाहौर) में लोहे की खानें थीं।

 

 

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